आख़िरी प्रतिबिंब
जब आख़िरी पन्ना बंद होता है, कहानी वहीं ख़त्म नहीं होती -
वह तो बस साँस लेती है, पाठक के दिल में।
हर गोली की आवाज़, हर धड़कन की लय, हर धुंध से गुज़रती परछाईं -
वे सब अब किसी और की स्मृति में ज़िंदा हैं।
शायद किसी बेटे के सपने में,
किसी माँ की दुआ में,
या किसी पुराने सिपाही की खामोश सलामी में।
इस किताब में जो कुछ भी लिखा गया है,
वह सिर्फ़ यादें नहीं - यह उन दिनों का प्रमाण है
जब साहस, दर्द और कर्तव्य एक ही सांस में जिए जाते थे।
“धुंध में सिपाही” सिर्फ़ मेरा अनुभव नहीं है,
यह उन सबकी आवाज़ है, जो धुंध के उस पार
अपना चेहरा खोकर भी, देश की आत्मा बचा आए।
और अब… जब मैं इस आख़िरी पंक्ति तक पहुँचता हूँ,
तो लगता है, शायद कहानियाँ मरती नहीं -
वे बस यूनिफ़ॉर्म बदल लेती हैं।
अधूरी
दास्तानें
मिट्टी का निशान
वह एक छोटा-सा पत्थर था, जिस पर किसी ने पेंसिल से लिखा था -
“सिर्फ़ छुट्टी पर गया हूँ, लौटकर मिटा दूँगा।”
महीने बीत गए। पत्थर वही रहा।
बारिश आई, धूल जमी, नाम धुंधला पड़ गया।
पर एक दिन, नए जवान ने वही जगह चुनी अपने ट्रंक के लिए।
पत्थर उठाया, नाम पढ़ा, और धीमे से बोला -
“शायद लौट आया होगा… किसी और वर्दी में।”
कुछ निशान मिटते नहीं, बस मिट्टी बदल लेते हैं।
पत्र जो पहुँचा नहीं
एक पत्र था, अधूरा - बीच में टूटी हुई स्याही की लकीर,
जैसे किसी ने लिखते-लिखते गोलियों की आहट सुन ली हो।
“माँ, इस बार लौटूँगा तो बस खेत देखूँगा, युद्ध नहीं।”
यहीं तक लिखा था।
बाक़ी का हिस्सा शायद हवा ने पूरा किया होगा -
किसी और माँ के कानों में,
किसी और बेटे के दिल में।
हमेशा कुछ पत्र ऐसे होते हैं,
जो डाक से नहीं, दुआओं से पहुँचते हैं।
अधूरी सलामी
परेड ग्राउंड में हर साल वही धुन बजती है -
ढोल की ताल पर एक कमी महसूस होती है,
जैसे किसी कदम की आवाज़ गायब हो।
पर जब सूरज झुकता है और ध्वज धीरे-धीरे नीचे आता है,
मैं देखता हूँ - हवा की लहर में कोई सलाम करता हुआ-सा लगता है।
शायद वही है…
जिसकी फाइल अब भी “Missing
in Action” कहती है,
पर आत्मा अब भी गिनती है साथ चलने वालों की कतार में।
क्योंकि एक सिपाही मरता नहीं,
वह बस अधूरी सलामी बनकर रह जाता है -
हर झंडे की छाँव में।
बंदूक और बांसुरी
एक बार एक जवान ने अपनी राइफल के बट में एक सुराख़ बनाया था।
उसमें उसने बांसुरी का एक टुकड़ा फँसा दिया।
जब वह पोस्ट पर अकेला होता, हवा चलती -
और बंदूक से सुर निकलते।
लोग कहते, “किसने सोचा था कि
एक हथियार भी गा सकता है?”
शायद इसलिए कि उस जवान को
मारना
नहीं, याद रहना था।
धुएं में चेहरा
एक मुठभेड़ के बाद, धुआँ छँटते ही
किसी ने दीवार पर कुछ लिखा पाया –
“मैं वापस आऊँगा, बस यह बताने कि मैं डरता नहीं था।”
किसी ने कहा, वो दुश्मन था।
किसी ने कहा, शायद अपना ही।
मगर दीवार अब भी वही है -
हर धुंधली सुबह में, चेहरा बदल देता है।
चौकी की घड़ी
वो घड़ी जो हर रोज़ सुबह चार बजे अलार्म बजाती थी,
अब भी चलती है - बिना किसी के उसको चाबी दिये।
कहा जाता है,
वो उसी जवान की थी जो हमेशा पहले उठता था।
कोई देखे तो बोले - “शायद बैटरी वाली होगी, जो लंबी चली।”
मगर हम जानते हैं -
वो ज़िम्मेदारी की रौशनी थी, जो अब तक बुझी नहीं।
पेड़ के नीचे बूट
एक बंकर के पीछे, पुराने बरगद के नीचे,
दो बूट रखे हैं - धूल में डूबे, पर सीधे खड़े।
हर बारिश में, वे खुद धुल जाते हैं,
जैसे अब भी परेड में शामिल हों।
कभी-कभी हवा चलती है,
और पत्ते सरसराते हैं जैसे कमांड दे रहे हों -
“अटैंशन
!”
ठंडी चाय
ऑपरेशन से लौटे तीन साथी बैठे थे -
कप में डाली चाय ठंडी हो चुकी थी।
एक ने कहा, “चल, गरम कर लाता हूँ।”
वह उठा… और फिर कभी लौटा नहीं।
बाक़ी दो ने वो चाय फिर कभी नहीं फेंकी।
हर सुबह उसे वहीँ रखते रहे -
एक अधूरी चुस्की के साथ।
ट्रंक में तस्वीर
एक जवान की ट्रंक में एक तस्वीर मिली -
धुंधली-सी, किनारे से जली हुई।
पीछे लिखा था -
“अगर लौटूँ तो पहचान लेना इसी मुस्कान से।”
सालों बाद उसका बेटा फौज में भर्ती हुआ।
जब उसने ट्रंक खोला -
तस्वीर में वही मुस्कान थी…उसकी माँ की !!!।
कोहरा और कुर्सी
मुख्यालय के बरामदे में एक कुर्सी है -
टूटी हुई, पर अब भी वहीं रखी जाती है।
कोई उस पर बैठता नहीं, बस धुआँ कभी-कभी टिक जाता है।
कहते हैं, एक बार उस कुर्सी से आदेश निकले थे
जिनसे दस जिंदगियाँ बचीं।
अब वह कुर्सी भी आदेश नहीं देती,
बस आशीर्वाद देती है।
ध्वज की आख़िरी तह
परेड खत्म हुई।
ध्वज को तह किया जा रहा था -
एक-एक मोड़ के साथ, एक नाम, एक चेहरा, एक याद।
जब आख़िरी तह लगी,
ध्वज ने जैसे खुद कहा -
“अब मेरी सलामी तुम्हारी आँखों से है।”
और सब खामोश खड़े रहे।
क्योंकि उस दिन हवा भी खड़ी हो गई थी।
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